शहर बरहना*, गुंग पड़े हैं, सूने करघे, कौन बुने
जितने धागे टूट गए हैं,उतने धागे कौन बुने
जिस्मों पर पौशाक हो लेकिन आँखें नंगी बेहतर हैं
जिनको रोज उधड़ना ठहरा, ऐसे सपने कौन बुने
पहला धागा ठीक पड़ा था, आगे आए झोल-ही-झोल
कौन उधेड़े दुनिया तुझको, नए सिरे से कौन बुने
कुनबे वाले अच्छे हैं, पर खोट जो है सो हममें है
अपने आपको धोखा देकर झूठे सपने कौन बुने
नर्म मुलायम ज़ानू* जैसे लगते थे सर रखते ही
रंग-बिरंगे रेशम से अब वैसे तकिए कौन बुने
जाने वाले छोड़ गए उलझाव हमारे हिस्से का
कौन निकाले अपनी राहें, अगले रस्ते कौन बुने
1-बरहना--नग्न
2-ज़ानू--गोद