ऐ अफ़रोज़ा!
तेरे हर आलम,
हरकत-शरारत के ज़ेरे हिरासत
वो जवानी का फितूर
जो हर जुम्बिश
हर शक्ल-औ-अदा में
बेसब्र उफनता था
कहीं अपने शर्मीले बचपन को
बदमस्त बदन की तहों में
दबा सा गया था;
वो रिश्ता दर रिश्ता
जूझता-जीतता, बढ़ता-बदलता
उस मंज़िल पे ले आया जहाँ
पीछे मुड़ के कुछ देर
देखना भी मुमकिन न था,
जब तू
औरत बन के खिली-बिखरी
तासीर-ए-खुशबू की तरह,
और तेरे जिस्म के
नूर-ए-नक़्श
किसी मुक़ाम पे जा कर
खुद को उस अक्स से तोलते रहे
जहाँ से उभर के तू आयी थी,
तेरे उस बदलाव-ए-सफ़र
उस बाहरी रंग-ए-इश्क़ का
चाहने वाला भी
अब नज़र कमज़ोर कर बैठा है।
तेरे जिस्ता-ए-कुण्ड की ख़ुश्बू
अब उन रगों की हिरासत है
जो अपनी रवानी में तेरी जवानी को
बदन की तहों में दबा सी गयी है
हर उस याद को
जिस्म-ए-रेगिस में ढूँढने को
मुक़म्मल करने को
तेरे बदन पर कुछ साँसें लिये
सूँघता-टटोलता, करीब आता है
और उन पोशीदा चौबारों में
छिप जाना चाहता है।
तेरा हम-मुसाफिर
शायद अपनी जवानी
तुझमें खो देना चाहता है।