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ओट / प्रज्ञा रावत

जब-जब टूटकर गिरता है
शहर का कोई
बरसों पुराना पेड़
तो कैसा ख़ाली
कर जाता है मन

तब अपने ही शहर के रास्ते
हमें पहचानने से कर देते हैं इनकार
चारों तरफ़ फैल गए इस
घनघोर रीते सन्नाटे में
किसकी ओट ढूँढ़ें हम

नए पेड़ कब पनपेंगे
होंगे कब हरे कि जिनकी
घनी छाया की ठण्डक
पा सकें हम

तब तक हम भी
हो ही चुके होंगे
बूढ़े पेड़।