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ओढ़ी गयीं चुप्पियाँ / नीता पोरवाल

ओढ़ी गयीं चुप्पियाँ !
ऊँगली में चमकते
उस खूबसूरत नगीने सी
जिसका दूसरा सिरा बेहद नुकीला
देता रहता हैं चुभन रात और दिन
वहीँ मासूमियत से
मन ही मन मुस्कराती रहती हैं चुप्पियाँ

ओढ़ी गयीं चुप्पियाँ
ऊँची अट्टालिकाओं और
बंद कपाट वाले अभेद्य दुर्ग सी
सुरंग खोदने के प्रयास में
हर पल घायल होता है मन
वहीँ गर्व से अकड
अकेले ही सारी उम्र गुजार लेती हैं चुप्पियाँ

ओढ़ी गयीं चुप्पियाँ
न्याय पुस्तिका में न लिखे जा सके एक गंभीर अपराध सी
गवाह के अभाव में
दोषी करार दिए जाने वाले भय से मुक्त
न जाने क्यों
औरों को उम्र कैद की सज़ा दे जाती हैं चुप्पियाँ