ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर
मुँह में धुआँ आँख में पानी
लेकर अपनी राम कहानी
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर ।
मेरी कुटिया के सम्मुख ही
ऊँचे घर में बड़ी धूप है
गली हमारी वर्फ़ हुई क्यों
आँगन सारा अंधकूप है
सिर्फ़ यही चढ़ते सूरज से माँग रहा इंसाफ़ दिसम्बर ।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।
पेट सभी की है मजबूरी
भरती नहीं जिसे मजदूरी
फुटपाथों पर नंगे तन क्या
हमें लेटना बहुत ज़रूरी
इस सब चाँदी की साज़िश को कैसे कर दे माफ़ दिसम्बर।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।
छाया, धूप, हवा, नभ सारा
इनका सही-सही बँटवारा
हो न सका यदि तो भुगतेगी
यह अति क्रूर समय की धारा
लिपटी-लगी छोड़कर अब तो कहता बिलकुल साफ़ दिसम्बर ।
बैठा है टूटी खटिया पर ओढ़े हुए लिहाफ़ दिसम्बर।।