ओस की जुबानी / संतोष श्रीवास्तव

मैंने कोहरे को
किसी तरह पार कर
सनकी हवाओं से
लगातार जूझ कर
अपने बून्द अस्तित्व से बेखबर
जुनूनी ज़िद में गिरफ्त
समा जाना चाहा तुममें

मैंने रात भर
बून्द बून्द
मोहब्बत के पैगाम लिखे

अंधेरे का सफ़र
तय कर
कोहरे की परत भेद कर
मैं लगातार बढ़ती रही
तुम्हारी ओर
अपने बदन पर
चांद का अक्स ले
तुममें झिलमिलाने को आतुर

मैं इंतजार करती रही
कि तुम खिलो
और अपने आगोश में
ले लो मुझे

नहीं जानती थी
मोहब्बत में मात ही सबसे बड़ी शह है
और मिट जाना मेरा मुकद्दर
मैं थरथराती रही
रात भर
और सूरज निकलते ही! मिट चली
ओस थी न

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.