हाथ जोड़ करती हूँ तुमसे केवल यह मनुहार
ओ कारे कजरारे बादल, घिरो न मेरे द्वार।
वैसे ही कमज़ोर बहुत होते बिरहिन के प्राण
उस पर भी बरसाये जाते तुम बूंदों के बाण
गरज़ गरज़ ऐसे भी कोई करता होगा शोर
लरज़ लरज़ जाता मन मेरा पीपर-पात-समान।
कैसे करूँ कांपते पांवों से देहरिया पार
पर्वत-सी ऊँची हो आई आंगन की दीवार।
कान्हा-जैसा रूप तुम्हारा, कान्हा जैसा वेश
कान्हा जैसे ही गूँथे हैं तुमने अपने केश
अधरों पर वंशी विद्युत की, इंद्रधनुष का हार
इंगित कर-कर मुझे दे रहे मिलने का संदेश।
सांवरिया सा अभिनय करना सीख लिया, यह ठीक
किन्तु कहां से लाओगे तुम, उन सा हृदय उदार?
छेड़ रही हर सखी सहेली ले कर मेरा नाम
'कर सोलह सिंगार राधिके, घर आये घनश्याम'
पहले तो बैरिन थी मेरी केवल काली रात
अब तो दुश्मन हुआ जान का, यह सारा ही गाम।
कोई नहीं आंकता मन की निर्मलता का मोल
केवल तन का कलुष देख पाता है वह संसार।
जब से श्याम गये मधुबन में खिला न कोई फूल
भटक रही सिर धुनती अपना पतझर की ही धूल
जिसे खींच कर कभी कन्हैया करते थे खिलवार
कांटे थाम-थाम लेते हैं अब तो वही दुकूल।
ऋतुओं का क्रम बदल गया, कैसे अचरज की बात
पहले ही बरसात आ गई, आई नहीं बहार।
हाथ जोड़ करती हूँ तुमसे केवल यह मनुहार
ओ कारे कजरारे बादल, घिरो न मेरे द्वार।