तुम्हारे गालों पर जो गड्ढे हैं
छोटे-बड़े
ये जो रेखाएँ हैं
आड़ी-तिरछी
माथे पर
ये जो उग आए हैं
खूटों से
दाढ़ी तुम्हारी
तुम्हारे खेतों की तरह ही तो दिखते हैं...
ये जो आँसू है
भरे हुए लबालब
तुम्हारी खाली सूनी आँखों में
बेमौसम बारिश से जैसे खेत
चौपट जिसके नीचे खड़ी फसल
पहले भी तो
हुआ ऐसा बारों-बार
सूखी-सूखी धरती जब
बारिश ने धता बता दिया
पहले भी तो
हुआ ऐसा बारों-बार
जब पश्चिम में उठा बवंडर
और पूरब में पत्थर पड़े
पड़ी बारिश की मार
तब तुमने हाथों को दोनों
गालों पर रखा
उकड़ूँ होकर बैठ गए तुम
वहीं मेड़ पर
तब भी तुमनें डालों को देखा था
हरा-भरा जो पेड़ खड़ा था
जो तूफानों को झेल चुका था
केरियाँ जिसकी सारी झड़ चुकी थी
फिर भी वह अड़ा पड़ा था
ओ किसान!
भूल गए तुम
तुम्हारे ही हाथों तो
उस पेड़ का नन्हा बीज पड़ा था...
आज उसी पेड़ की डगाल
जो झुकी हुई
तुम्हारे ही खेत की ओर
गमछे के फंदे से
लटक गए तुम
खुली चौड़ी आँखें तुम्हारी
देख रही किस ओर...
ओ किसान!!