भोर चली जल भरने को
हाथों में ले मटके।
ओ गौरैया जागो झटपट
बोला कागा
आधा सोया –जागा,आँगन
सरपट भागा
बस्ती भर के डिब्बे खाली
हैं कतार में अटके।
रेतीली आँखों में सपने
खोये जल के
आघे पौने जागे पनघट
हैं निर्बल के
मानसरोवर ओझल हैं सब
पंथी पथ भटके।
बाल दुधमुहें छोड़े घर,मन
अवसाद घनेरा
झूल रहा होगा झूले में
निबल सवेरा
ममता अधिक अधीर हुई
तो आँसू टपके।
चलकर बोलो,छोड़ो मत
अब हक़ का पानी
सही बात कहने में
क्या राजा क्या रानी
राज घरानों के कूपों में
चलना तड़के।