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ओ घन श्याम ! / ज्योत्स्ना शर्मा

ओ घन श्याम !
मुदित अभिराम
सजल हुए
धरा पर बरसे
और कभी यूँ
मिलने को तरसे ।
कौन सिखाता
सारी तुम्हें ठिठोली ?
सखी तुम्हारी
पुरवाई क्या बोली ?
भटकाती है
संग तुमको लेके
भला कहो तो
कित- कित है जाती
ज़रा तो जानो ।
कण -कण व्याकुल
तुम्हारे बिना
तुम न पहचानो ।
और कभी ये
मुक्त भाव से भला
कौन संदेसा
नदिया से कहते ?
उमड़ी जाती
वो बहते -बहते
सखा हमारे
हमें न भरमाओ
अब मान भी जाओ ...!!