ओ पिता तुम वेदपाठी हो
मगर लय हीन हो।
नापतीं आकाश को, बातें तुम्हारी
क्यों तरसती न्याय को, साँसें बिचारी
जा चुकी है हाशिये पर, आस प्यासी
ढूंढती रहती थी मिली, कावा न काशी
ओ पिता तुम कूप साठी हो
मगर जल हीन हो।
सींचते हो खेत हर, जोखिम उठाकर
शीत –कोहरे में सदा, नजदीक जाकर
हर निवाले ने लिखी, कीमत तुम्हारी
नेह के व्यापार में फिर, क्यों उधारी ?
ओ पिता तुम धान साठी हो
मगर कण हीन हो।
था उजालों का नगर जो, लुट चुका है
जुगनुओं के हाथ, सूरज बिक चुका है
हर तरफ दिखने लगे हैं, अब अखाड़े
रात –दिन बजते जहाँ, द्वंदी नगाड़े
ओ पिता तुम सुघड़ काठी हो
मगर बल हीन हो।