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ओ मेरे आराध्य / बलबीर सिंह 'रंग'

ओ मेरे आराध्य, तुम्हारा
निष्ठुर मौन मुखर कब होगा?

श्रद्धा थकी, साधना उन्मन
बीत रही अर्चन की वेला,
पूजा-सुमन लगे कुम्हलाने
आकुल यजमानों का मेला,
अमिय पात्र के बंदी विष का
नीरस स्वाद मधुर कब होगा?
ओ मेरे आराध्य...

जिसके जलते हुए स्नेह को
तम का बंधन बाँध न पाया,
जिसकी आलोकित आभा ने
अनुमानों को पंथ दिखाया,

मेरे उस विश्वास दीप का
क्षीण प्रकाश प्रखर कब होगा?
ओ मेरे आराध्य...

गायक के स्वर संधानों को
सकल दिशाऐं हैं दुहरातीं,
और चितेरे की रेखाऐं
बसुन्धरा पर पूजी जातीं,
कवि के चिर-कल्पित स्वप्नों का
तीखा सत्य अमर कब होगा?
ओ मेरे आराध्य...