ओ मेरे मन!
इच्छा का पहला सोने का मृग तू आया अँधेरे के वन में
तेरी ही खोज में काल का धन्वी फिरता रहा है भुवन में
तू ही है धरती, तू ही है सागर, तू ही है नीलगगन
तू जो कहे तो हिमालय उठा लूँ गंगा की धारा बदल दूँ
तू जो कहे तो ये घर छोड़ कर मैं जंगल-पहाड़ों में चल दूँ
तू ही धराता है गांडीव मुझसे रणक्षेत्र में कृष्ण बन
यह तो बता दे कि तू ही न होगा तो फिर मैं यहाँ क्या करूँगा
नभ पर चढूँगा कि भू में गड़ूँगा कि चिर-शून्य में जा मरूँगा
तेरे ही इंगित से फिरता रहा है चक्कर में यह अग्निकण
ओ मेरे मन!