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ओ मेरे मसरूफ ख़ुदा / नासिर काज़मी

ओ मेरे मसरूफ ख़ुदा
अपनी दुनिया देख ज़रा

इतनी ख़ल्क़त के होते
शहरों में है सन्नाटा

झोंपड़ी वालों की तक़दीर
बुझा-बुझा सा एक दिया

ख़ाक उड़ाते हैं दिन रात
मीलों फैल गये सहरा

जागो-जगन की चीखों से
सूना जंगल गूँज उठा

सूरज सर पर आ पहुँचा
गर्मी है या रोज़े-जज़ा

प्यासी धरती जलती है
सूख गये बहते दरिया

फसलें जलकर राख हुई
नगरी-नगरी काल पड़ा

ओ मेरे मसरूफ ख़ुदा
अपनी दुनिया देख ज़रा।