ओ राही! इतना जान सभी दिन एक समान नहीं होते
सौरभमय हँसते मधुबन में हरदम मधुमास नहीं रहता,
विकसित सुमनों के मन में नित रस का उल्लास नहीं रहता।
पतझर के आते ही सारी सुषमा सपना बन जाती है,
मुसकाती कलियों के मुख पर मोहक मृदु हास नहीं रहता।
मधु-प्यासी मधुपावलियों के हरदम मधुगान नहीं होते।
ओ राही! इतना जान सभी दिन एक समान नहीं होते
जगमग तारक-दल से होता, रजनी का नित शृंगार नहीं,
वसुधा पर शुभ्र ज्योत्सना का नित होता मुक्त प्रसार नहीं।
विरही चातक के लिए भला कब स्वाति बूंद बरसा करती,
उन्मत्त चकोरों को मिलता नित शशि का दर्श दुलार नहीं।
मानव-मन के भी सदा सभी पूरे अरमान नहीं होते।
ओ राही! इतना जान सभी दिन एक समान नहीं होते