ओ सच, तुझे चार दशकों से,
ढूंढ रही हूँ, हर गली, चौराहे
दिल की दुकानों पर, मगर सभी है रिक्त
खोया-खोया-सा अस्तित्व,
सत्य की जगह असत्य के परदे है,
भ्रमित है चारों दिशाएँ,
कल्पनाएँ, जुगुप्साएँ, कालिमा कर रही नर्तन,
विध्वंस के पौधे लगे है, समय की घातक घड़ी में,
निज रूप के दर्शन कराओ।
देख ले एक बार फिर से, मोह का पर्दा हटाओ।
हर प्राण जागृत हो उठे, छँट जाए तम की घटाएँ
सत्य ही शाश्वत जगत में, शान्ति का संदेश वाचक,
निर्मूल होगी, मिथ्या चरण की, सारी बिछायेँ, कोरी मान्यताएँ,