Last modified on 12 दिसम्बर 2010, at 22:30

औरत-1 / किरण येले

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: किरण येले  » औरत-1

औरत और मिट्टी
दोनों एक जैसी
दोनों ही स्त्री-लिंगी
आदिम
मानो प्रकृति ही ।

पहले ही दिन से औरत
सेती रहती है अपने पेट में
पुरुष की सारी ग़लतियाँ ।
प्रेम, शृंगार, विकृति
और मिट्टी भी ।

दोनों ही अंकुरित होती रहती हैं,
भूख मिटाती रहती हैं,
फेंकी हुई प्लास्टिक की थैलियाँ
अपने भीतर छिपा लेती हैं,
दोनों का हरापन
इन्हें संभालने वाले पर अवलंबित ।
औरत के भीतर बहुत प्रेम और तल में विद्रोह
जैसे मिट्टि के भीतर गीलापन और तल में लावा रस ।

दोनों ही अनाकलनीय अपने लिए
और कसने वाले के लिए भी
औरत और मिट्टी
दोनों ही जब तक ज़मीन पर हैं
तब तक लाख मोल की ।
छूटकर हाथ से खुली हो गईं कि
मूल्यरहित, घटिया, तुच्छ
दोनों पर जी लगाना पड़ता है बहुत
करनी पड़ती है मेहनत
बारिश के बग़ैर गीलापन गया कि
ज़मीन
आँधी-तूफ़ान में मिट्टी छूटने लगती है ज़मीन से
और औरत परिवार से,
इन दोनों में महत्त्वपूर्ण समान सूत्र यह कि
किसी आदमी को अथवा
उसके परिवार को
जिलाना कि ध्वस्त करना
यह फ़कत इन दोनों के ही हाथों


मूल मराठी से अनुवाद : सूर्यनारायण रणसुभे