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औरत का इतिहास / रंजना जायसवाल

मर्दों के इतिहास से
अलग होता है औरत का इतिहास
पर हर बार मिलता है पढ़ने को
मर्दों का लिखा इतिहास
जिसे समझकर सच
अपराध बोध में जीती है
जनम को रोती है
औरत का असली इतिहास
नहीं लिखा गया
स्याही....कलम से
कोरे कागज़ पर
वह लिखा है
औरत के मन पर
आँसुओं से
जिसे पढ़ सकती है सिर्फ वही
उतार सकती है कागज़ पर
भोगे हुए कड़वे सच
खुद के लिखे
इतिहास की शक्ल में
एक निडर विचार बनकर
पर पहले से लिखे को मिटाना
और उस पर नया लिखना आसान नहीं है
फैल सकती है स्याही कागज़ पतला होकर फट सकता है
असपष्ट हो सकते हैं अक्षर
हो सकता है इस कोशिश में
मार भी डाली जाए वह
क्योंकि व्यवस्था विचार से डरती है
औरत के सच्चे इतिहास से डरती है।