औरत को ज़माने ने बस जिस्म ही माना है
क्या दर्द उसके दिलका कोई नहीं जाना है
बाज़ार में बिकती है घरबार में पिसती है
दिन में उसे दुत्कारें, बस रात को पाना है
मां बाप सदा कहते, धन बेटी पराया है
कुछ साल यहां रहके, घर दूजे ही जाना है
इक उम्र गुज़र जाती, संग उसके जो शौहर है
सहने हैं ज़ुलम उसके, जीवन जो बिताना है
बंटती कभी पांचों में, चौथी कभी ख़ुद होती
यह चीज़ ही रहती है, इन्सान का बाना है
बन जाती कभी खेती, हो जाती सती भी है
उसकी न चले मर्ज़ी बस इतना फ़साना है