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और कमरे में / कुमार रवींद्र

और कमरे में
नहीं है कोई भी
सिर्फ मैं हूँ और मेरा डर
 
झील पर है
एक सहसा मौन पसरा
कोई पक्षी कहीं चिहुँका
हमें अखरा
 
पार खिड़की के
खड़ा जो पेड़ है
लगा हमको वह बड़ा कातर
 
कहा डर ने -
'भाई, कैसा यह सबेरा
कई घायल चुप्पियों ने
हमें घेरा
 
'आईने में
धूप कब होगी, बताओ
दिन बसंती- हो रहा पतझर
 
'रात-भर आई
हवा जो जंगली है
हुई ज़ख्मी
नेह की तो हर गली है
 
'सिलसिला कब तक
चलेगा यह'
मैं रहा चुप - यही था उत्तर