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और चांद को रात से मोह हो गया / निधि सक्सेना

और चांद को रात से मोह हो गया
अंधेरा होते ही उफ़क पर चढ़ आता
देर तक उससे बतियाता
उस पर तारे बरसाता
उसके सम्मोहन में बँधा
नित नए रूप धरता
कभी रागी
परिपूर्ण और शांत
चाँदनी को अलफ़ाज़ बनाता
कभी विरागी
आधा अनमनस्य
नज़्मों के लिबास पहने रहता
कभी अनुरागी
झीना-झीना प्रेम लपेटे
दिखता छिपता
कोई गीत गुनगुनाता
मुस्कुराता

रात निशब्द कदमों से चलती
भोर के मुहाने तक
विलुप्त होने

परंतु लोकातीत था चाँद का प्रेम
उसने कभी रात को
किन्ही अनुबंधों में नही बाँधा
केवल अपनी प्रभा से
रात का सौंदर्य
अनावृत किया

रात अक्सर अश्कों से भीग जाती
अभिभूत
अनुरक्त
बगैर किसी अनुबंध चाँद से बंधती जाती.