तुम संज्ञाहीन, मैं अर्थरहित
तुम स्वतंत्र, मैं पीड़ा-ग्रहीत
मैं शब्द, तुम रचना
मैं भविष्य, तुम कल्पना
हाँ यह सम्बंध तुमसे विशेष है
जब मुझमे तुम्हारा ही समावेश है
जानती हो, क्षण अब क्षिप्रता से
चलते चले जाते हैं और
और धूमिल करना चाहते हैं
मेरे हृदय पर अंकित तुम्हारे चित्र को
तुम्हारे नहीं होने का इन्हें आभास है
तुम्हारी स्मृति मिटाना, इनका प्रयास है
तुम तो निरंतर उपस्थित हो मेरे साथ
तुम मेरी पीड़ा का अंश हो
मेरी अतृप्त इच्छाओं का विध्वंस हो
अब क्या इच्छा रखूँ
जब तुम मेरे पास, मुझमें
अब जा भी नहीं सकती तुम यहाँ से
याद भी नहीं तुम्हें कुछ, आई कहाँ से
सम्भावना तो नहीं अब कि तुम से
रहित कर के कुछ भी सोचूँ
सम्भव ही नहीं अब कि
स्वयं में तुझको न खोजूँ
अब मृत्यु भी आए अगर
छीनने मुझसे तुम्हारा सानिध्य
मैं सृष्टि बन जाऊँगा
पुन: तुम्हें पाऊँगा
करूँगा अपने प्रेम को सिद्ध
हर युग में, हर काल में
तुम ही होगी मेरी प्रेयसी
तुम से अलग ही सही, लेकिन तुम्हारा ही
मैं अंश बनूँगा और तुम शशि
और तुम शशि