वक़्त बदला
और...
हम घायल हुए आपद-मस्तक
किसी कवि ने
रक्त-खप्पर कहा था
उगते समय को
क्या कहें हम
रक्त-रंजित और खंडित
इस ह्रदय को
आँसुओं से
हम इन्हें धोते रहे हैं - अब गए थक
रोज़ दुर्घटनाएँ होतीं
कभी जंगल-कभी घर में
हाट में भी
अब नहीं रह गया
मीठा जल
नदी के पाट में भी
चोट माथे पर
लगी थी-पाँव में भी / गईं दोनों पक
ढाल बाँधे आए थे हम
पीठ पर
वह हुई जर्जर
काँच के घर में
बसे हम
लोग फिरते लिए पत्थर
देव के माथे
कँटीला ताज़ - सब कुछ सही बेशक