कञ्चनमृग, आगे मत पूछना
पर्णकुटी छूटी, तो कैसे ?
सोचा था अपनी सीमा में भी
चन्दन का धर्म बहुत होता है
भूमि-शयन का भी अपना सुख है
कोई मृगचर्म बहुत होता है
जन-अरण्य, आगे मत पूछना
पञ्चवटी रूठी, तो कैसे ?
रत्नजड़े मुकुट ले गए मुझसे
सुखनिद्रा स्वप्न की, अभय की
सूख रहे होंठों तक आई है
एक और प्यास दिग्विजय की
अश्वमेध, आगे मत पूछना
सीता है झूठी, तो कैसे ?
बाहर का युद्ध जीतने पर भी
भीतर निष्प्राण हुए जाना
कितना खलता है पुष्पक रथ पर
दिशाहीन, वाण हुए जाना
सरयू-जल, आगे मत पूछना
प्रत्यञ्चा टूटी, तो कैसे ?