तुम्हें खरगोश की तरह
तेज दौड़ते देखा
और अपने कछुआ होने को
स्वीकार कर लिया।
कई कई बार पछाड़ा तुमने
जानबूझकर
पीछे छोड़ दिया
पर हर बार हार को गले लगाकर
इंतज़ार करती रही
कि कभी किसी पल
थमोगे, बैठोगे, सुस्ताओगे
तो आगे निकलने की गुंजाइश
बची रहेगी मेरे सामने
ठीक उस कहानी की तरह।
पर तुम कहानी के नायक नहीं
जीवन के अधिनायक हो
यह बार-बार साबित किया
सतर्क रहे,
जब भी रुके
अधखुली आँखों से देखते रहे
और मेरे आगे निकलने का
जरा-सा अंदेशा होते ही
छलांग लगाकर बढ़ गए दुबारा
और जीतते रहे ।
चालाकी से थामे रखा मुझे
कि हटने न पाऊँ मैं मुकाबले से
ताकि जीत का जश्न
मनाते रहो तुम
हर बार
बार बार ...!