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कजरी / शैलजा पाठक

ससुराल से पहली बार
आई कजरी गुम सुम सी है
कम हंसती है
अकेले कोने में बैठ कर
काढ़ती है तकिया के खोल
पर हरा सुग्गा

सहमी सी रहती है
आने जाने वालों से नही मिलती

देर तक बेलती रहती है रोटी
इतनी की फट जाये

माई बाप अगली विदाई की
तैयारी में लगे हैं
छोटी बहन जीजा को लेकर
जरा छेड़ती है

आस पड़ोस वालों में किसी "नई खबर"
की सुगबुगाहट

ससुराल से वापस आई लड़कियां
बस लाती है तथाकथित नई खबरें
ये मान लेते हैं सब

कोई जानना नही चाहता... कजरी छुपा लेती है
वो दाग जो दुखता है हर घडी

बाप जूटा रहा है विदाई का सामान

कजरी के मेजपोस पर हरा सुग्गा
एक काले पिंजरे में बंद है

सुई चुभती है
कजरी की उँगलियों से निकलने वाला
रंग सुग्गा के चोच जितना गहरा है