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कजली / 30 / प्रेमघन

गोबर्धनधारण

निज 'अनुराग बिन्दु' से संगृहीत

डगमगात गिर, गिरै न हाय! देख! गिरधारी रे साँवलिया।
थरथरात हिय समझत भार, लगै डर भारी रे साँवलिया।
बीते सात रात दिन अबतौ, बरसत बारी रे साँवलिया।
गोबरधन धरि कर पर राख्यो, तू बनवारी रे साँवलिया।
धन्य-धन्य भाखैं गोपी सुधि, सकलबिसारी रे साँवलिया।
चूमत स्याम-स्याम की बहियाँ, करि रतनारी रे साँवलिया।
धन्य जसोमति जिन तोहि जायो, जग हितकारी रे साँवलिया।
नन्द जसोमति मिलि मींजत भुज, सुतहि दुलारी रे साँवलिया।
निरंजीवो प्यारे तुम ब्रज के, बिपति बिदारी रे साँवलिया।
बाधाहरनि हरहु की भाखत, राधाप्यारी रे साँवलिया।
पीर तिहारी सहि न जात अब, मीत मुरारी रे साँवलिया।
बुन्द न परत देखि बृज सुरपति, भागे हारी रे साँवलिया।
जय जय जयति प्रेमधन सुर गन, हरखि उचारी रे साँवलिया॥51॥