घास की फुनगी हिली
फिर काँप कर मोती गिरा,
पास से गुजरी हँसी
तो आँख में बादल तिरा।
इसी पथ पर, एक-
चन्दन वन घना था,
चोंच में थे नरम तिनके
नीड़ उलझा अनबना था,
थामते थे यह सिरा
तो छूटता था वह सिरा।
कट गए जंगल हरे
बस रह गया अनवरत उड़ना,
दूर क्षितिजों के बसेरे
कौन जुड़ना क्या उजड़ना,
दूरियों का नाम लेते
पाँव उठते हैं पिरा।
कौन समझे अब कोई स्पर्श
जल या रेत का,
पंख टूटे थे जहाँ
मरुभूमि थी या खेत था?
ना समझ रातें नहीं हैं
दिन नहीं है सिरफिरा।