Last modified on 6 जुलाई 2012, at 21:25

कठपुतली / सुधा गुप्ता

कठपुतली
बाज़ार में सजी थी
ख़ुश, प्रस्तुत
कि कोई ख़रीदार
आए, ले जाए
उसके तन–बँधे
डोरे झटके
हँसा, रुला उसको
रिझा, नचाए
मन मर्ज़ी चलाए
ले गया कोई
गुलाबी साफ़ा उसे
कठपुतली
खुश–खुश नाचती
ख़रीदार की
भ्रू–भंगिमा देख के
अपना तन
तोड़ती–मरोड़ती
थिरकती थी
बल खा–खा जाती थी
ऐसा करते
बहुत दिन बीते
जोड़ चटखे़
नसें भी टूट गई
बिखर गई
वो ‘चीथड़ा’ हो गई
वक्त़ की मार :
टूटी–फूटी चीज़ों का
भला क्या काम ?
सो ‘घूरे’ फेंकी गई
अब विश्राम में है।