बहुत सोचा, मेरी जान
मैंने तुम्हारी जानिब
और तय पाया
कि कठिन समय का
कठिनतम मुहावरा है प्रेम
प्रेम की खोज अक्सर
अनगिनत तहों के भीतर
एक और तह की तलाश
और हर तलाश के बाद भी
बची हुई तलाश
बहुत सोचा, मेरे महबूब
मैंने तुम्हारी जानिब
और यक़ीन करना पड़ा
कि बिरहन की स्मृतियों में
गूलर का फूल है प्रेम
युग-युगान्तर तक सुरक्षित
लोकगाथाओं में, कि पाया उसे
जिस किसी ने जिस दम
मारा गया वह उसी दम
बहुत चाहा, मेरी जान
कि शब्दों के बाहर
कहीं टहलता हो, प्रेम,
और पूछ लूँ उसका पता
तफ़सील से
किसी चाय की दुकान
किसी बस अड्डे
किसी गली-चौराहे
उसकी पीठ पर रखूँ हाथ,
औचक, और चमत्कृत कर दूँ
किसी आँख की चमक
किसी हाथ की लकीर
किसी गर्दन की लोच में
नहीं बचा था, प्रेम,
ढूँढ़ा मैंने, पर्त दर पर्त
भटका किया जंगल-जंगल
एक फूल की तलाश में
उधर, बाज़ार में,
ऊँचे दामों में बिक रहा था प्रेम ।