भरी दुपहरी निकला घूमने
धूप बेइंतहा चमकदार थी
दूर तक कोई पशु ऑंख से नहीं गुजरा
जलाशय की चमकती ऑंखों ने मुझे पुकारा
कि इस तरह कोई और पुकार जीवन में नहीं थी
फॉंदता झाडियां मैं उधर जा पहुंचा
मटमैल पत्थरों में एक गोह थी
जो केंकड़े से खेल में व्यस्त थी
अपनी भूख से कदाचित संतुष्ट इतनी कि
पास पड़े घडियाल के अंडों से लापरवाह
यहां तक अपने होने से बेपरवाह-बेतकल्लुफ
वह बस डूबी थी अनोखे राग में
उसकी देह मुझे आकर्षक लगी पहली बार
केंकड़े के चित्तेदार सलेटी रंग पर
जीभ कुछ ऐसे घूम रही थी मानो
उतारती हो पीठ के बदरंग रंग
एक जो जुगुप्सा थी बचपन से कुछ रंगों से
जाती रही मेरे भीतर से
मुझे ज्यादा जरूरी लगे वे रंग सृष्टि के
कतराता रहा जिनसे अब तक
जी भरके देखी मैंने केंकड़े की देह आज
मन भरके डूबा रहा आज मैं गोह में