किसी हवाले की ज़रूरत नहीं
मगर हमारे वक़्त का
बहुत ख़राब चेहरा है वह,
जिसे हम दूरदर्शन पर देखते हैं
रोज़-ब-रोज
सुनते हैं रेडियो पर
पढ़ते हैं रोज़ाना अख़बारों में
उसी के बैनर,
उसी की लीड
आमुख-कथा में भी
उसी का अक्स
वह हर कहीं मौज़ूद
वक़्त जब आईना देखता है
दिखाई देता है उसी का बिम्ब
इतना बुरा तो नहीं था वक़्त
कदाचित पहले कभी
न घोड़ा, न जिरह-बख़्तर, न हाथ में शमशीर
न तिजारती बाना और न मक्खीकट मूँछें
बिल्कुल वैसा ही चेहरा जैसा हम
रोज़ देखते हैं
कभी घर में, कभी बाज़ार में, कभी सपने में
वह रहा हमारा कथानायक
बाहर से शान्त, भीतर से चपल
वह हाथ जोड़ेगा हठात
रसातल में कुछ और धँस जाएगा
हमारा देश ।