रास्तों का
यह अजब मायाजाल है
एक को दूसरा काटता
दूसरे को तीरा
ऐसे ही हर रास्ते को
कोई न कोई
रास्ता ही काटता है
काटते-काटते
रास्ते मिलते जाते हैं
एक दूजे से
किन्तु ये समानान्तर
ज्यादा दूर कहाँ
चल पाते हैं
कोई रास्ता कहीं नहीं जाता
चिपका रहता है
धरा से
जैसे चिपका हो
कोई बच्चा
अपनी माँ से
इन पर चल कर ही
पहुँचा जा सकता है कहीं
या यों कहो
अपनी मंजिल पर।
बेवजह भी
कोई आ-जा सकता है
इन पर
किन्तु कोई भी रास्ता
किसी को
कहीं नहीं पहुँचाता
इस पर खुद ही
जाना होता है
फिर ऐसे में
कोई रास्ता!
खुद चलकर
मेरी ओर
क्यों आएगा भला।
मुझे ही
अपनी दिशा और दशा
की खोज में
चलना होगा
अपनी अदम्य आकांक्षाओं
के साथ
अपना रास्ता खुद बनाने
कदम बढ़ाना ही होगा।