हवा,
अपनी बासंती अँगुलियाँ
डैफोडिल्स और ट्यूलिप की खुश्बुओं में डुबो,
लिख रही है धूप को निमंत्रण,
अप्रैल के आखिरी पन्नों पर...
धूप बेखबर खेल रही है,
आँख मिचौली बादलों के संग।
उधर हवा,
पेड़ों को जगाती हिमनिद्रा से,
घास को मुस्कुराने का आदेश देती,
कलियों का मस्तक सूँघती,
पाँव दबा, महकती, छलकती,
फिर रही है यहाँ से वहाँ,
पाहुन धूप के आने की तैयारी में जुटी.
अप्रैल के आखिरी पन्नों पर...