बरसों से अपनापन ओढ़े
वे सब तो बेगाने निकले।
जिनके मन में दग़ा भरी थी
हमें वफ़ा समझाने निकले।
अधरों से मधु झरा आज तक
हमको ज़हर पिलाने निकले।
कपट-कथा जो रहे बाँचते
वही हमें भरमाने निकले ।
धूल नहीं थे जो इस पथ की
पर्वत से टकराने निकले।
आस्तीन में रहे जो छुपकर
हमको सबक सिखाने निकले।
आग लगाकर मेरे घर में
अपना फ़र्ज़ निभाने निकले।