कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो, यह धीरज ही मैं धरैबो करै।
उर ते कढ़ि आवै गरै तें फिरै, मन की मनहीं मैं सिरैबो करै॥
'कवि बोधा' न चाउसरी कबहूँ, नित की हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै॥
कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो, यह धीरज ही मैं धरैबो करै।
उर ते कढ़ि आवै गरै तें फिरै, मन की मनहीं मैं सिरैबो करै॥
'कवि बोधा' न चाउसरी कबहूँ, नित की हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै॥