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कबिरा सोच रहा / कुमार रवींद्र

कैसे धोवे
चादर मैली
कबिरा सोच रहा
 
लाख जतन कर ऋषि-मुनि हारे
उजली हुई न चादर
राम-रहीम-पीर-पैगंबर
सबका हुआ निरादर
 
किसकी माया
जग में व्यापी
कबिरा सोच रहा
 
राख-धुएँ का दरिया बहता
जिसमें डूबे सारे
जानबूझ कर जो हैं बूड़े
उनको कौन उबारे
 
साँसें क्यों हैं
हुई कसैली
कबिरा सोच रहा
 
पनघट-पनघट कबिरा ढूंढ़े
नेह-नदी का पानी
पूछ रहा वह
कहाँ खो गई अटपट मीठी बानी
 
दिन अंधा है
रात वनैली
कबिरा सोच रहा