Last modified on 27 जुलाई 2019, at 01:12

कबीर है कहाँ / सुभाष राय

यज्ञ की धूम पर सवार महारथियों ने
घोषणा की — मनुष्य नहीं, शूद्र हो तुम
नहीं धारण कर सकते अपौरुषेय शब्द

बुद्ध देख रहा था सारा पाखण्ड
बाँहे फैलाए, मुस्कराता हुआ

आ जाओ सभी मेरे साथ
आदमी केवल आदमी होता है
जन्म से नहीं,कर्म से तय होती है ऊँचाई
तुममें प्रकट हो सकती है सारी सम्भावना

पर आगे बढ़ते ही बिखर गया जुलूस नकल
केरल का एक युवक
जब बौद्धों से टकरा रहा था
उन्हें पराजित कर रहा था
तब भी वह स्वयँ से ही लड़ रहा था

ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या
जगत के सत्य को
आदमी के सुख-दुख को
ठुकरा देना इतना आसान कहाँ
एक तरफ़ वैभव, समृृद्धि और सौन्दर्य
तो दूसरी तरफ़ दर्द, तड़प और मृत्यु से भरी
दुनिया को झूठ कह देना आसान था
पर कठिन था उस पर भरोसा दिलाना

लोग समझ नहीं पाए अद्वैत मन्त्र
मुड़ गए गीत गाते फ़कीरों की ओर
वे निकल आए थे गलियों में
सच को सच और झूठ को झूठ
कहते हुए निडर, निरहंकार
उन्हें न ईश्वर की चिन्ता थी
न जगत के वैभव का मोह था
वे मनुष्य को जगा रहे थे
उसे ही भगवान बता रहे थे

लोग आए और झूमने लगे
थिरकने लगे उनके साथ
झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया
दास कबीर जतन से ओढ़ी
जस की तस धर दीनी चदरिया

गुज़र गए सैकड़ों बरस
आईने पर जम गई है धूल
उजले लिबास में सड़कों पर
घूम रहे हैं झूठ, फ़रेब और पाखण्ड
खलनायकों के हाथ में
नाच रही है सत्ता
ग़रीब रोटी के लिए
तरस रहा, मारा-मारा

क्यों नहीं मँच पर
आ रहा कोई कबीर
आख़िर कैसे बदलेगी
देश की शापग्रस्त तक़दीर