कब खुला आना जहाँ में और कब जाना खुला ।
कब किसी किरदार पर आख़िर ये अफसाना खुला ।
पहले दर की चुप खुली फिर ख़ामुशी दीवारों की,
खुलते-खुलते ही हमारे घर का वीराना खुला ।
जब तलक ज़िन्दा रहे समझे कहाँ जीने को हम,
वक़्त जब खोने का आ पहुँचा है तो पाना खुला ।
जानने के सब मआनी ही बदल कर रह गए,
हमपे जिस दिन वो हमारा जाना-पहचाना खुला ।
हर किसी के आगे यूँ खुलता कहाँ है अपना दिल,
सामने दीवानों को देखा तो दीवाना खुला ।
थरथराती लौ में उसकी इक नमी-सी आ गई,
जलते-जलते शम्अ पर जब उसका परवाना खुला ।
होंटों ने चाहे तबस्सुम से निभाई दोस्ती,
शायरी में लेकिन अपनी ग़म से याराना खुला ।