चौंसठ वर्षो तक इस रपटीले पथ पर
मिट्टी के बने सुगढ़, सुन्दर-से रथ पर
चलते ही रहने की मेरी मजबूरी
अब तक न जान पाया मंजिल की दूरी
कुछ मिले हमसफर तानों-तिश्नों वाले
कुछ ने तो बुने सदैव चतुर्दिक जाले
मिल सका न कोई जो सहला दे छाले
उँगली की पोरों पर ये अश्रु उछाले
जाने कितना पथ आगे अभी पुकारे
चलते-चलते पग थके-थके-से हारे
सम्बल गीतों का काफी पीछे छूटा
बटमारों ने मेरे गुंजन को लूटा
गिरता-उठता हूँ, पाँवों को गति देता
मँझधारों में हँस-हँसकर नइया खेता
लहरों का आमंत्रण कैसे ठुकराऊँ
कैसे न चुनौती को मैं गले लगाऊँ
आँसू, पीड़ा, वेदना साथ देते हैं
गिरने पर, हँस कर बढ़ा हाथ देते हैं
तट पर का सन्नाटा न कभी भी भाया
इन ऊँची लहरों ने सदैव दुलराया
जाने कब तक लहरों पर नर्तन होगा
कब नश्वर ‘रथ’ का पट-परिर्वतन होगा
लहरें कब मुझको आत्मसात कर लेंगी
कब कवि को अपनी बाँहों में भर लेंगी
सुखकर होंगे वे क्षण, जब नहीं रहूँगा
लहरों के संग सागर की ओर बहूँगा
यह बूँद समुद्र बनेगी जाने कब तक ?
चलना होगा मंजिल पाने को कब तक ?