कब तलक उत्सव मनाऊँ,
दूर है घर, लौट जाऊँ ।
यह नदी जो बीच में है
पार होगा ही उतरना,
शाम होने को हुई है
और क्या अब देर करना;
रात होने से ही पहले
घर पहुँचना है जरूरी,
दुःख तो है ही, आज भी तो
रह गयीं बातें अधूरी;
है कहाँ अवकाश किसको
जो कि अपना ही सुनाऊँ।
बांध लूँ सामान कस कर
लहर पर ये खुल न जाए,
क्या पता, जो कुछ कमाया
वह बहुत ही काम आए;
लोग पूछेंगे ही घर में
पोटली यह खोल दूँगा,
‘था बहुत उत्सव अनोखा
मन वहीं है’ बोल दूँगा;
और मेले में खरीदी
काठ की गुड़िया नचाऊँ ।