कब से विलोकती तुमको
ऊषा आ वातायन से?
सन्ध्या उदास फिर जाती
सूने-गृह के आँगन से!
लहरें अधीर सरसी में
तुमको तकतीं उठ-उठ कर,
सौरभ-समीर रह जाता
प्रेयसि! ठण्ढी साँसे भर!
हैं मुकुल मुँदे डालों पर,
कोकिल नीरव मधुबन में;
कितने प्राणों के गाने
ठहरे हैं तुमको मन में?
तुम आओगी, आशा में
अपलक हैं निशि के उडुगण!
आओगी, अभिलाषा से
चंचल, चिर-नव, जीवन-क्षण!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२