कभी बतियाते हैं!
एकांत में गिरे उस फूल से
जिसकी झड़ती पंखुरियों ने बचाया है
न जाने कितनी मुस्कानों को
और चलना निरन्तर
उस चींटी की तरह
जिसकी जिजीविषा ने
न जाने कितनी बार
जीना सिखाया है
प्रकृति का दिया
उसे सूद समेत लौटाते हैं
जीवन से कुछ क्षण
बतियाते हैं
मूक रहकर
पर्वत की तरह, बादलों को लिखतें हैं पत्र
नाव के काठ की
तरह पानी-पानी
हो जातें हैं
फूल-सी कोमलता हो
मन में हमारे
जितना पाया धरा से
कुछ धरा को लौटाते हैं॥