Last modified on 16 अगस्त 2009, at 12:53

कभी मिल जाय शायद / नंदकिशोर आचार्य

वसन्त का दोष क्या इसमें
अब यदि गर्मियों ने जला दिया
सब जो खिला था
उसने तो खिला दिया
खिल पाया जितना भी
पतझर के बाद।

नहीं, रेगिस्तान बारिश के भरोसे नहीं
आसमाँ मेहरबाँ मुझ पर ज़रा होता-
मैं रेगिस्तान क्यों होता?

होगा अब जो होना होगा
कर्मगति जैसी हो
उसको ढोना होगा
ढो सके जब तक ढो
पर लहरों से अपनी
सपने बुनना मत खो
कभी मिले शायद
फिर वसन्त वो!