Last modified on 13 फ़रवरी 2020, at 23:40

कमानिया गेट / हरेराम बाजपेयी 'आश'

मैं अपने शहर के कमानियाँ गेट की
जब भी देखता हूँ
मुझे दिल्ली का इण्डिया गेट,
बरबस ही याद आ जाता है,
और मेरे दिल में एक दर्द सा भर जाता है।

दोनों का एतिहासिक महत्व,
और कहानी का आधार एक है,
पर आज भीड़ में महत्व मर चुका है,
और गया है मात्र गेट है।
गेट अर्थात दरवाजा,
यात्री और वाहन इन्हीं के नीचे से होकर,
गुजरते है, गुजर्राते रहते है,
सब कुछ देखते हैं, सहते है,
पर किसी से कुछ नहीं कहते।
एक रात काफी देर से मैं उधर से गुजर रहा था,
मुझे लगा जैसे मुझे किसी ने आवाज दी हो,
सुनो, तुम्ही मेरी सुनो,
मैं अचकचाया, सायकल से उतरा,
और देखा सामने मेरे कमानियाँ गेट खड़ा है,
जिसके सिर पर अवसादों का घड़ा है।

पास आकार बोला,
तुम कवि हो, दर्द से तुम्हारा जरूर कोई नाता होगा,
मेरी हालत पर तुम्हें तो तरस आता होगा,
ऐ अजनबी मीत,
मुझ पर भी लिखो एक गीत,
मैं भी तुम्हारी तरह दर्द का मारा हूँ,
भीड़ में घिरा हूँ फिर भी बेसहारा हूँ,
आज वह फिर बोला,
इतिहास का खोल कर थैला,
मैंने एक सपना देखा था,
कि एक दिन मैं भी इण्डिया गेट बनूँगा,
रोशनी में चमकूँगा,
जवाहर गंज में हूँ अत: गुलाबो से महकूँगा
पर कहाँ कि रोशनी, कहाँ गुलाबी सुगंध
मुझे तो दुकानों के बीच कर दिया गया है बन्द,
मेरे ऐतिहासिक महत्व को कोई नहीं देखता,
हर कोई अपनी अपनी रोटी यहाँ सेकता,
परतंत्रता में बना था, लेकिन स्वतंत्र था,
पर आजाद भारत लगता परतंत्र हूँ,
कहाँ दिल्ली राजधानी और,
कहाँ यह संस्कारधानी,
कहते कहते उसकी आंखों से बहाने लगा पानी,
बोला, मेरे दोस्त,
कुछ दिनो से ऐसा कुछ सुन रहा हूँ,
अन्दर ही अन्दर जिससे घुल रहा हूँ,
अरे लोगो को समझाओ,
आजादी क्या होती है,
देश को तोड़ने वाले कपूतों
भारत माता रोती है,
अरे कैसा अशान्त आसाम
कैसा अलग खालिस्तान
कह दो, बता दो
कश्मीर से कन्याकुमारी तक,
एक ही हिंदुस्तान, मेरा भारत महान,
आप यह तिरंगा मेरे पर लहराओ,
आओ सुभाष, गाँधी, शास्त्री फिर आओ,
जवाहर की दिव्य ज्योति, आँखों से जलाओ ,
धन के अन्धे दुश्मनों को
देश की गरिमा बताओ,
जाओ कवि, जाओ,
मेरे पास भी एक मैदान बनवा दो,
गुलाबों के पौधे लगे हो जहाँ,
यह एहसान करा दो,
कतारों में लगी हो मूर्तियाँ,
आजादी के शहीदों की,
एक धार नर्मदा की ले आओ यहाँ तक,
सुबह शाम होने दो,
बलिदानियों की आरती,
सारा देश गा उठे,। जय भारती, जय भारती।
इसी जय घोष के साथ,
कमानियाँ गेट शान्त हो गया,
पता नहीं उसकी बातों से
मेरा मन क्यों क्लान्त हो गया,
लगा जैसे कमानियाँ गेट
सिर्फ 45 वर्षों में ही बूढ़ा हो गया है,
पता नहीं उसका स्वप्न कभी पूरा होगा की नहीं,
पर उसका दर्द आज मेरा हो गया है,
क्रांति का प्रतीक कंपनियाँ
अब सिर्फ गेट रह गया है,
गेट अर्थात आने- जाने का रास्ता,
जहाँ से रोज ही,
हजारों लोग गुजर जाते है,
पर कितने है जिन्हें,
कमानियाँ में,
सुभाष नजाजर आते है, सुभाष नजर आते है॥