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कमीज / कौशल किशोर

कमीज जो शरीर पर रहती थी
सुरक्षा में पूरी मुस्तैद
अब खूंटी पर टंगी रहती है
जैसे यही उसका स्थाई निवास हो

वे हमारे अच्छे दिन थे
कमीज मेरी पहचान थी
वह इस कदर जुड़ी थी मुझसे
कि दूर से ही लोग पहचान लेते थे मुझे

मैं जहाँ जाता, कमीज मेरे साथ जाती
दफ्तर, सभा-सोसायटी, हाट-बाजार हर जगह
मैं ड्यूटी बजाता, मेरे साथ ड्यूटी पर यह भी होती
धरना, प्रदर्शन में शामिल होता, नारे लगाता
यह भी साथ होती

कमीज हर हफ्ते धुलती
धुलकर, कलफ व इस्त्री के बाद
जब यह मेरे बदन पर सवार होती
इसकी चमक से मेरा व्यक्तित्व
ताजे फूलों की तरह खिल उठता
लोग कहते भी कि अच्छे लग रहे हो
सुन्दर दिख रहे हो
इस तरह कमीज लोगों के बीच मेरी प्रतिष्ठा बढ़ा देती
और मैं भी इसका पूरा सम्मान करता
भरपूर ख्याल रखता

इन दिनों देश लॉकडाउन में है
मेरे साथ कमीज भी लॉकडाउन में है
मैं घर में बन्द हूँ
और उसका बाहर निकलना बन्द है
मतलब हमदोनों कैद में हैं

मेरे पास कोई काम नहीं
आराम ही आराम और इस आराम में रक्तचाप बढ़ गया है
यह मेरे अन्दर की बेचौनी है
जो कविता में व्यक्त हो रही है

कमीज खूंटी पर टंगी है
पानी की जगह धूल से नहा रही है
कह सकते हैं अपनी ड्यूटी से छुट्टी पर है
आराम फरमा रही है
यह बेजुबान है
जुबान होती तो जोर-जोर से कहती-
आराम हराम है!