गुरु द्रोण
अपना अंगूठा
तुम्हारी कुटिलता की
वेदी पर चढ़ाने के
बाद भी
मुझे ही लड़ना होगा
युद्ध तुम्हारे खिलाफ
भले ही हारकर
मैं बेमौत मारा जाऊँ
मेरी तर्जनी और मध्यमा में
अभी भी लड़ने की
बहुत शक्ति बची है
और
तुम करते रहो अफसोस
कि
अंगूठे की जगह तुमने
क्यों नहीं माँगा
जड़ से मेरा हाथ...।