करुणामय! उदार चूड़ामणि! प्रभु! मुझको यह दो वरदान।
देखूँ तुम्हें सभीमें, सभी अवस्थाओंमें हे भगवान॥
शद मात्रमें सुन पाऊं मैं नित्य तुम्हारा ही गुण-गान।
वाणीसे गाऊँ मैं गुणगण, नाम तुम्हारे ही रसखान॥
इन्द्रिय सभी सदा पुलकित हों पाकर मधुर तुम्हारा स्पर्श।
कर्म नित्य सब करें तुम्हारी ही सेवा, पावें उत्कर्ष॥
बुद्धि, चिा, मन रहें सदा ही एक तुम्हारी स्मृतिमें लीन।
कभी न हो पाये विचार-संकल्प-मनन, प्रभु! तुमसे हीन॥
सदा तुम्हारी ही सेवामें सब कुछ रहे सदा संलग्र।
यही प्रार्थना-रहूँ तुम्हारे पद-रति-रस में नित्य निमग्र॥