तन मन जीवन प्रीति सुहाती, सुख-दुख करुणा प्राण लुटाती।
साँसों की सरगम बन जाती, परम आत्मना माँ कहलाती।
जब जब जीव धरा पर आया, अंकुर बन वह जीवन पाया,
पलकें खुलते गले लगाती, परम आत्मना माँ कहलाती।
शीतल होती उसकी छाया, सदा सँवारे नख शिख काया,
मन को वह हरपल हर्षाती, परम आत्मना माँ कहलाती।
छवि जिसकी कण-कण में पाया, पंचतत्व बन देह समाया,
अंक भरे जो क्षीर पिलाती, परम आत्मना माँ कहलाती।
रातों की निंदिया बनजाती, भावों की वह लोरी हो कर,
प्रथम गुरु बन दिशा दिखाती, परम आत्मना माँ कहलाती।