करे सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
इलाही इतना भी उस शख्स को हिज़ाब न दे
तमाम शहर के चेहरों को पढ़ने निकला हूँ
ऐ मेरे दोस्त मेरे हाथ में क़िताब न दे
गज़ल के नाम को बदनाम कर दिया उसने
कुछ और दे मेरे साक़ी मुझे शराब न दे
मैं तुझ को देख के तेरे भरम को जान सकूँ
इक आदमी हूँ ज़रा सोच ऐसी ताब न दे
वो न मिल पाए अगर मुझको इस ज़माने में
तो ऐसी हूर का दुनिया में कोई ख़्वाब न दे
ये मेरे फन की तलब है कि दिल की बात कहूँ
वो 'अश्क' दे के ज़माने को को इंकिलाब न दे.